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अंतःकरण को शुद्ध करें
अंतर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग द्वारा मन को राग और द्वेष से मुक्त किया जा सकता है | ऐसा हो जाने पर ही उस मानव के मन में न तो किसी के प्रति प्रीति रहती है , और न ही कोई बैर | इसके बाद ही उसके लिए संसार के सभी प्राणियों के प्रति समान भाव पैदा हो जाता है | राग और द्वेष से मुक्ति पा जाने पर मानव की अंतश्चेतना सहज ही सबसे अपनेपन का आनंद अनुभव करने लगती है | उसका स्वभाव ही इस प्रकार का बन जाता है , कि उसे किसी की निंदा या स्तुति उसके लिए बच्चों के नासमझ बोल के समान हो जाती है | मन से परिष्कृत साधक थोड़ी देर के लिए ऐसे वाक्यों को सुनकर थोड़ी देर के लिए अपना मनोरंजन तो कर लेता है , परंतु उनके तथ्यों को गंभीर भाव में धारण नहीं करता है | ऐसा प्राणी जब किसी की किसी के द्वारा निंदा की वाक्य सुनता है तो उसका मन न तो दुखी होता है , और न ही किसी की प्रशंसा के वाक्य सुनकर उसके मन में प्रसन्नता की अनुभूति कर पाता है |
प्रत्येक प्राणी में स्थित इंद्रियां ही उसे वस्तु , दृश्य अथवा घटनाक्रम से परिचय तो अवश्य कराती हैं | परन्तु इस परिचय से भावनात्मक विक्षोभ या वैचारिक द्वंद की स्थिति नहीं बन पाती है | चूँकि प्राणी की चेतना में निरंतर यह अनुभूति बनी ही रहती है | आसक्ति से मिलने वाला ज्ञान सदैव ही अंतश्चेतना पर गंदगी की परतें जमाता चला जाता है | जबकि राग और द्वेष से विहीन होने पर मिलने वाला ज्ञान , प्रत्येक काल और प्रत्येक अवस्था में योग साधक की अंतश्चेतना को शुद्ध , पवित्र और निर्मल बना देता है | इस तथ्य का ज्ञान हो जाने पर साधक सदैव ही मानवीय चेतना के भाव से दूर रहने का प्रयास करता है | वह चाहता है कि उसका ध्यान राग और द्वेष से परे हो | वह सदैव ही इसी स्थिति को प्राप्त करना चाहता है , ताकि उसे सच्चे ज्ञान की अनुभूति और प्राप्त हो सके |
सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए चित् एवं वस्तु के संबंध को स्पष्ट रूप से जानना अति आवश्यक है | यह तो सर्वविदित है कि चित् और वस्तु के संबंध ही मन को वस्तु का ज्ञान कराते हैं | इस संबंध में एक सत्य को जानना और भी आवश्यक है | जिसमें स्पष्ट से बताया गया है कि इसके दृश्य वस्तु किसी केवल एक चित् के अधीन ही नहीं है | क्योंकि जब वह चित् का विषय बनेगी ही नहीं , तब उस वस्तु के होने का क्या अर्थ है | अर्थात निरर्थक है | क्योंकि वस्तुएं तो हर समय , हर मानव के सामने उपस्थित रहती हैं |
यहां एक सत्य तो अपने आप में ही प्रकट हो जाता है कि चित् और वस्तु का संबंध का ज्ञान होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान होता पाता है | इससे जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि चित् की सत्ता भी पृथक है , और वस्तु की पृथक | इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब तक चित् का संबंध किसी वस्तु से बना रहता है , उस समय तक ही उसका अस्तित्व भी बना रहता है | इसके विपरीत होने पर भी वस्तु का सत्य और उसकी सत्ता चित् के अभाव में भी बने रहते हैं |
यह तो सभी जानते हैं कि चित् पर वस्तु का प्रतिबिंब पडने से ही वस्तु के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है | उस समय ही हमें उस वस्तु का ज्ञान हो पाता है | इसके विपरीत होने पर हमें वस्तु का ज्ञान नहीं हो पाता है | इस तरह से हमें जानकारी मिलती है कि प्रत्येक मानव की इंद्रियों के संपर्क में जो भी वस्तु आती है , तब केवल उसकी परछाई ही चित् पर पड़ती है | इसी से सभी को वस्तु का ज्ञान हो पाता है | यदि ठोस रूप में कहा जाए तो मानसिक क्रियाओं का सार , ज्ञान ही है | इसको हम जानकारी हो पाती हैं कि संपूर्ण मनोविज्ञान के अल्प ज्ञान रखने वाले भी परसेप्शन , कॉग्निशन , इमोशन , थाटप्रोसेस और बिहेवियर से सहजता से किसप्रकार परिचित हो जाते हैं , और हमें सरलता से हमारी जीवन प्रक्रिया भी स्पष्ट हो ज्ञात हो जाती है |
उपरोक्त संपूर्ण विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि चित्त की परिष्कृत स्थिति में ही चित्त और वस्तु का संपर्क संबंध ही चित् में वस्तु जान के साथ साथ मलिन भावनाओं और कुसंस्कारों को भी जन्म देती है | इसीसे ही मानव के नए कर्म विनिर्मित होते हैं , जो नवीनजन्म या नवीनजन्मों की श्रंखला को उत्पन्न करते हैं | जिसके परिणाम स्वरुप स्थिति की निरंतरता सदैव गतिमान बनी रहती है | जिसमें कहीं भी बाधा या अवरोध उत्पन्न नहीं होता है |
ऐसी स्थिति में हर योगसाधक को एक यह उपाय करना आवश्यक हो जाता है कि उसका चित् सदैव शुद्ध निर्मल और परिष्कृत बना रहे | उसका मन संसार की मलिनताओं जैसे राग और द्वेष आदि से पूरी तरह मुक्त हो | ऐसा होने पर ही उसे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है , जो उसे जीवन संसार की कठिनाइयों तथा परेशानियों से मुक्ति दिला सकती है | सच्चा ज्ञान होने पर साधक को कोई भी बंधन हो सकेगा ऐसा कोई कारण ही नजर नहीं आता है | अंत में यह कहा जा सकता है कि अंतःकरण की शुद्धि से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है | यह जान ही उस योग साधक को महामानव बना देता है , और संसार की सभी भव बाधाओं से दूर करने का कारक भी बनता है | इसीलिए हर साधक को सतत प्रयास करना चाहिए कि वह अपने मनोभावों को शुद्ध निर्मल और परिष्कृत बनाए रखें।
इति श्री
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अंतःकरण को शुद्ध करें
अंतर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग द्वारा मन को राग और द्वेष से मुक्त किया जा सकता है | ऐसा हो जाने पर ही उस मानव के मन में न तो किसी के प्रति प्रीति रहती है , और न ही कोई बैर | इसके बाद ही उसके लिए संसार के सभी प्राणियों के प्रति समान भाव पैदा हो जाता है | राग और द्वेष से मुक्ति पा जाने पर मानव की अंतश्चेतना सहज ही सबसे अपनेपन का आनंद अनुभव करने लगती है | उसका स्वभाव ही इस प्रकार का बन जाता है , कि उसे किसी की निंदा या स्तुति उसके लिए बच्चों के नासमझ बोल के समान हो जाती है | मन से परिष्कृत साधक थोड़ी देर के लिए ऐसे वाक्यों को सुनकर थोड़ी देर के लिए अपना मनोरंजन तो कर लेता है , परंतु उनके तथ्यों को गंभीर भाव में धारण नहीं करता है | ऐसा प्राणी जब किसी की किसी के द्वारा निंदा की वाक्य सुनता है तो उसका मन न तो दुखी होता है , और न ही किसी की प्रशंसा के वाक्य सुनकर उसके मन में प्रसन्नता की अनुभूति कर पाता है |
अंतश्चेतना का निर्मलीकरण
प्रत्येक प्राणी में स्थित इंद्रियां ही उसे वस्तु , दृश्य अथवा घटनाक्रम से परिचय तो अवश्य कराती हैं | परन्तु इस परिचय से भावनात्मक विक्षोभ या वैचारिक द्वंद की स्थिति नहीं बन पाती है | चूँकि प्राणी की चेतना में निरंतर यह अनुभूति बनी ही रहती है | आसक्ति से मिलने वाला ज्ञान सदैव ही अंतश्चेतना पर गंदगी की परतें जमाता चला जाता है | जबकि राग और द्वेष से विहीन होने पर मिलने वाला ज्ञान , प्रत्येक काल और प्रत्येक अवस्था में योग साधक की अंतश्चेतना को शुद्ध , पवित्र और निर्मल बना देता है | इस तथ्य का ज्ञान हो जाने पर साधक सदैव ही मानवीय चेतना के भाव से दूर रहने का प्रयास करता है | वह चाहता है कि उसका ध्यान राग और द्वेष से परे हो | वह सदैव ही इसी स्थिति को प्राप्त करना चाहता है , ताकि उसे सच्चे ज्ञान की अनुभूति और प्राप्त हो सके |
एक स्पष्टीकरण
सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए चित् एवं वस्तु के संबंध को स्पष्ट रूप से जानना अति आवश्यक है | यह तो सर्वविदित है कि चित् और वस्तु के संबंध ही मन को वस्तु का ज्ञान कराते हैं | इस संबंध में एक सत्य को जानना और भी आवश्यक है | जिसमें स्पष्ट से बताया गया है कि इसके दृश्य वस्तु किसी केवल एक चित् के अधीन ही नहीं है | क्योंकि जब वह चित् का विषय बनेगी ही नहीं , तब उस वस्तु के होने का क्या अर्थ है | अर्थात निरर्थक है | क्योंकि वस्तुएं तो हर समय , हर मानव के सामने उपस्थित रहती हैं |
यहां एक सत्य तो अपने आप में ही प्रकट हो जाता है कि चित् और वस्तु का संबंध का ज्ञान होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान होता पाता है | इससे जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि चित् की सत्ता भी पृथक है , और वस्तु की पृथक | इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब तक चित् का संबंध किसी वस्तु से बना रहता है , उस समय तक ही उसका अस्तित्व भी बना रहता है | इसके विपरीत होने पर भी वस्तु का सत्य और उसकी सत्ता चित् के अभाव में भी बने रहते हैं |
जानकारी
यह तो सभी जानते हैं कि चित् पर वस्तु का प्रतिबिंब पडने से ही वस्तु के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है | उस समय ही हमें उस वस्तु का ज्ञान हो पाता है | इसके विपरीत होने पर हमें वस्तु का ज्ञान नहीं हो पाता है | इस तरह से हमें जानकारी मिलती है कि प्रत्येक मानव की इंद्रियों के संपर्क में जो भी वस्तु आती है , तब केवल उसकी परछाई ही चित् पर पड़ती है | इसी से सभी को वस्तु का ज्ञान हो पाता है | यदि ठोस रूप में कहा जाए तो मानसिक क्रियाओं का सार , ज्ञान ही है | इसको हम जानकारी हो पाती हैं कि संपूर्ण मनोविज्ञान के अल्प ज्ञान रखने वाले भी परसेप्शन , कॉग्निशन , इमोशन , थाटप्रोसेस और बिहेवियर से सहजता से किसप्रकार परिचित हो जाते हैं , और हमें सरलता से हमारी जीवन प्रक्रिया भी स्पष्ट हो ज्ञात हो जाती है |
उपसंहार
उपरोक्त संपूर्ण विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि चित्त की परिष्कृत स्थिति में ही चित्त और वस्तु का संपर्क संबंध ही चित् में वस्तु जान के साथ साथ मलिन भावनाओं और कुसंस्कारों को भी जन्म देती है | इसीसे ही मानव के नए कर्म विनिर्मित होते हैं , जो नवीनजन्म या नवीनजन्मों की श्रंखला को उत्पन्न करते हैं | जिसके परिणाम स्वरुप स्थिति की निरंतरता सदैव गतिमान बनी रहती है | जिसमें कहीं भी बाधा या अवरोध उत्पन्न नहीं होता है |
ऐसी स्थिति में हर योगसाधक को एक यह उपाय करना आवश्यक हो जाता है कि उसका चित् सदैव शुद्ध निर्मल और परिष्कृत बना रहे | उसका मन संसार की मलिनताओं जैसे राग और द्वेष आदि से पूरी तरह मुक्त हो | ऐसा होने पर ही उसे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है , जो उसे जीवन संसार की कठिनाइयों तथा परेशानियों से मुक्ति दिला सकती है | सच्चा ज्ञान होने पर साधक को कोई भी बंधन हो सकेगा ऐसा कोई कारण ही नजर नहीं आता है | अंत में यह कहा जा सकता है कि अंतःकरण की शुद्धि से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है | यह जान ही उस योग साधक को महामानव बना देता है , और संसार की सभी भव बाधाओं से दूर करने का कारक भी बनता है | इसीलिए हर साधक को सतत प्रयास करना चाहिए कि वह अपने मनोभावों को शुद्ध निर्मल और परिष्कृत बनाए रखें।
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