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सत्य केवल एक ही है
यह संसार मानव के झूठ और सच से भरा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि झूठ हजारों हो सकते हैं। परंतु सच केवल एक ही होता है। अर्थात सत्य अनेकों नहीं है केवल एक ही है। जबकि झूठ अनेकों प्रकार के और अनेकों प्रकार के हो सकते हैं। परन्तु अनेको में केवल एक ही सत्य की अभिव्यक्ति होती है | जिस प्रकार से अगर पानी में देखा जाए तो चंद्रमा पानी के हर जलकण में अलग अलग दिखता प्रतीत होता है | जबकि यह तो सभी जानते हैं कि चंद्रमा केवल एक ही है। ठीक इसी प्रकार सत्य भी केवल एक ही है। इसे अनेकों रूपों में मान लेना अज्ञानता है। यह तो हो सकता है कि उस एक सत्य तक पहुंचने की मार्ग अलग अलग हो सकते हैं। हर मार्ग से सत्य के पास पहुंचा जा सकता है , परंतु जो व्यक्ति मार्ग के आकर्षण में उलझ कर उसके मोह मे पड़ जाता है , उस समय उसका मार्ग वही से बंद हो जाता है। ऐसे में सत्य की समीपता प्राप्त करने के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है। यही कारण है कि उस सत्य प्राप्तकर्ता के लिए सत्य दुर्लभ ही बना रहता है।
सत्य का सापेक्ष रूप
प्रत्येक मानव महसूस करता है कि वह आंखों से जो दिखता है वही सत्य है। यह एक प्रकार का इंद्रिय जनित सत्य होता है। यह सच जैसा तो लगता है परंतु सच होता नहीं है। सच तो वह है जो हमें दिखता नहीं। क्योंकि सत्य सीमांओं से परे है। जैसे जैसे हम इन इंद्रियों की सीमाओं को पार करते जाते हैं , वैसे ही वैसे ही सत्य अपने रूप में प्रकट होता जाता है। मानव मंन जिससमय इस सीमा को पूरी तरह से पार कर लेता है , तब ही उसको सत्य स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगता है। इसको इस एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है , जैसे किसी दर्पण पर धूल पड़ी हो उस समय हमें उस पर बनने वाला प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं दिखाई देता है , परंतु जैसे-जैसे ही धूल साफ की जाती है , प्रतिबिंब स्पष्ट होता जाता है | ठीक इसी प्रकार मन पर जमी मैल हट जाने के बाद सत्य भी स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है। जब सत्य इतना स्पष्ट दिखाई पड़ता है तो भ्रम की स्थिति खत्म हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंद्रिय जनित सत्य होता है , वास्तविक सत्य नहीं होता है बल्कि सापेक्ष सत्य होता है। जबकि मन के द्वारा जिस सत्य का अवलोकन किया जाता है वही वास्तविक सत्य होता है।
सापेक्ष सत्य वास्तविक नहीं है
जिस सत्य का ज्ञान हमें अपनी इंद्रियों द्वारा अनुभवित होता है वह सापेक्ष सत्य होता है। इसको वास्तविक सत्य मान लेना एक त्रुटि है। मन के द्वारा अन्वेषित सत्य ही वास्तविक है। ऐसा सत्य निरपेक्ष होता है , सापेक्ष सत्य को हम अनुभव ही कर सकते हैं , क्योंकि यह सत्य हमारे सामने उपस्थित रहता है इसीलिए जब हम इसे ही वास्तविक सत्य मान लेते हैं। उससमय एक हमे एक अड़चन हो जाती है , क्योंकि जब इस सत्य के सामने दूसरा सत्य आ जाता है तो पहला वाला सत्य कमजोर पड़ जाता है। कहने का अर्थ यह है कि सापेक्ष यह सत्य समय के अंतर्गत होता है। तथा इसी से संसार भी चलता रहता है।यह सत्य देश , काल और समय की सीमाओं से बंधा होता है।
निरपेक्ष सत्य ही वास्तविक है
सापेक्ष सत्य के विपरीत जो वास्तविक सत्य होता है व्ह सीमा , देश , और काल से परे होता है। ऐसा सत्य केवल परमात्मा ही हो सकता है। यही कारण है कि वेद तथा उपनिषद आदि धर्म ग्रंथों में परमात्मा को ही निरपेक्ष सत्य माना गया है , तथा इसे अपरिवर्तनीय , अखंडनीय , अविभाज्य तथा अमर्त्य जैसे अनेकों विशेषणों से युक्त माना गया है। इस पर त्रिकाल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जिस प्रकार से समय के खंड भूत , भविष्य और वर्तमान किए गए हैं , ठीक उसी प्रकार मानवीय बोध के लिए सत्य को भी तीन खंडों में बांटा गया है।
सत्य के तीन कॉल रूप
भूत और वर्तमान सत्य- स्मृति को भूत सत्य माना गया है। जहां पर चित् में अतीत की घटनाएं संचित होती जाती हैं। उसे ही स्मृति कहते हैं। स्मृतियां मानव के वर्तमान जीवन में जीवंत हो सकती है। इस प्रकार से हमारी सारी स्मृति , ज्ञान विज्ञान और विवेक की सत्ता भूतकाल की घटनाएं हैं। सभी कालों में इनकी उपादेयता और उपयोगिता बनी रहती है। इसीलिए इन्हें कालातीत भी कहते हैं , परंतु जब कोई व्यक्ति इन अनुभूतियों को अनुभव करता हैं , उस समय यह वर्तमान की समझ बन जाती है। एक प्रकार से देखा जाए तो हमारी समस्त समझ का विकास भूतकाल में ही हुआ होता है।
वर्तमान तथा भविष्यिक सत्य
प्रत्येक कार्य प्रणाली में अतीत की सक्रियता निहित होती है , क्योंकि वर्तमान का हर क्षण अतीत से जुड़ा होता है। प्रत्येक मानव जो कार्य करता है वह अतीत का ही परिणाम होता है। जिसमें भविष्य का निहितार्थ छिपा होता है। यह एक विचारणीय विषय है कि जबसे सृष्टि का निर्माण हुआ है , तब से आज तक सब भूत के गर्भ में ही समाहित रहा है। निसंदेह वर्तमान महत्वपूर्ण है , परंतु जो हो चुका है वह वापस नहीं आएगा। अतीत के अनुभव से ही अनुभव लेकर इसका श्रेष्ठतम ढंग से उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार से वर्तमान ही भविष्य का आधार बनता है , वर्तमान में किया गया प्रत्येक कर्म , भविष्य के गर्भ में परिपाक होता है . मानव के द्वारा किये कर्म जो उसके द्वारा ही प्रतिपादित किये गए जाते है। इस कालखंड में उससे हमारी आत्मा अप्रभावित रहती है , क्योंकि आत्मा कालातीत होती है।
सत्य की प्राप्ति का मार्ग
सत्य को कैसे प्राप्त किया जाए और किस प्रकार से प्राप्त किया जाए तथा जीवन मे किस तरह उतारा जाए , इस विषय में उपनिषदकार कहते हैं , कि यदि किसी को सत्य प्राप्त की चाहना है , तो उसे चित् को आग्रह में न बांधो , क्योंकि इसमें बंधने पर सीमाओं को पार करना पड़ेगा , और सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। आग्रह और सत्य मे एक तरह का विरोधाभास है , मुक्त जिज्ञासा है। यही सत्य की खोज की पहली सीढ़ी भी है , जो व्यक्ति को सत्य की अनुभूति से पूर्व ही अपने चित् को इन्ही सिद्धांतों , मत , वादों और आग्रह से बोझिल कर देते हैं। जिससे उनकी जिज्ञासा कुंठित और अवरुद्ध हो जाती है। ऐसी स्थिति में सत्य का मिलना कठिन हो जाता है।
जिज्ञासा से सत्य को खोज
एक व्यक्ति की जिज्ञासा ही खोज की गति और प्राण है , क्योंकि इसी के माध्यम से विवेक का जागरण होता है , जिसके द्वारा ही सही और गलत का निर्णय किया जा सकता है। जिज्ञासा की उत्पत्ति आस्था से नहीं , आश्चर्य से पैदा होती है। यही कारण है कि जब हम कोई आश्चर्यजनक घटना देखते हैं , तब इन्ही आश्चर्यजनकभावों से जिज्ञासा प्रकट होती है। आश्चर्य स्वच्छ चित् का लक्षण है। इसके सम्यक अनुगमन से ही सत्य पर पड़े हुए पर्दे हंटने लगते हैं , और सत्य का दर्शन होने लगता है। सत्य की खोज के लिए पूर्वाग्रह , मत और सिद्धांत आदि से मुक्त होने की आवश्यकता होती है। इनका परित्याग किए बिना सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। सत्य का मार्ग असीमित है , सीमाओं से परे है जो मतों अथवा आग्रहों के दामन से विश्वास और अविश्वास की जंजीरों को खोल देता है। जिससे सत्य की यात्रा आसान हो जाती है।
सत्य का विस्तार अनन्त है
सत्य अंतरिक्ष में व्याप्त है , इसलिए इसका केवल अनुभव किया जा सकता है | यहीं पर सत्य अपने ठोस रूप में हर जगह विद्यमान है। इस सच्चाई को जानते हुए भी जो मानव अवरोधों में फंस जाते हैं , वह कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इन अवरोधों को आंखों से दूर करके ही इस सत्य के वास्तविक रूप की प्राप्त की जा सकती है .
इति श्री
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