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[ s/1 ] धर्म ; यह संसार एक मृगतृष्णा है

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धर्म ; यह संसार एक मृगतृष्णा है


इस अखिल ब्रम्हांड में एक छोटी सी रचना के रूप में दिखाई देने वाला यह संसार , आकर्षणों की खान है | यहां पर निवास करने वाले प्रत्येक मानव को यह संसार अपनी ओर आकर्षित करता है , अर्थात अपनी ओर खींचता रहता है | संसार के इस आकर्षण का कोई अंत नहीं है , यदि एक प्रकार से कहा जाए तो यह आकांक्षा , तृष्णा , वासना तथा कुछ अन्य होने की चाहत में बसता है | मानव के मन में जितना ही अधिक आकांक्षाएं और वासनाएं होंगी , उतना ही अधिक संसार के प्रति आकर्षण भी होगा | यह सब होने के बावजूद भी यह संसार न तो किसी का हुआ है , और न ही किसी का होने वाला है , क्योंकि यह तो आभासी सत्य है तथा साथ ही आभासी सुख की प्रतीति है | यही कारण है कि इतना तो सत्य है कि यहां किसी को सुख मिल पाया है , और मिल भी नहीं पायेगा |

संसार के आकर्षणों में विविधता

प्रत्येक मानव का संसार के प्रति आकर्षण गहरा होता है तथा यह आकर्षण के अनेकों प्रकार भी हो सकते हैं जैसे धन का आकर्षण | धन पाने की इच्छा करने वाले के लिए यह संसार , धन के आकर्षण का केंद्र है | इस संसार के अनेकों प्राणी धन प्राप्ति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए अनेकों प्रयास करते रहते हैं | प्रत्येक आदमी के घन की चाहत भी अलग अलग ढंग की होती है | किसी को धन इसलिए चाहिए कि , वह इससे आभूषण और कीमती वस्तुएं खरीद सके | जिससे उसका जीवन विलासिता और वैभव से परिपूर्ण बना रहे | कोई कोई पुरुष तो विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों की पूर्ति के लिए धन चाहते हैं , ततो कोई स्वाद के लिए, तथा कुछ को अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धन की आवश्यकता होती है |


धन के आकर्षण का अन्त नहीं

धन का आकर्षण कभी समाप्त नहीं होता , क्योंकि मानव मन चंचल होता है | इसलिए सभी का धन के प्रति आकर्षण भी अलग-अलग प्रकार का होता है | व्यक्ति को अपने जीवन में , सके आकर्षण से कभी मुक्ति नहीं मिल पाती है | इस तथ्य को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि , यदि किसी को '' किसी आवश्यकता '' की पूर्ति के लिए पर्याप्त धन मिल जाए , तब उसकी धन की इच्छा समाप्त हो जानी चाहिए , परंतु एक आवश्यकता की पूर्ति होने के बाद , उसे फिर से दूसरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पुनः पुनः इसकी आवश्यकता महसूस होने लगती है | इसके उपरांत वह फिर से अन्य इच्छाओं की पूर्ति में संलग्न हो जाता है | इसका कारण है जैसे-जैसे धन की प्राप्ति होती जाती है , वैसे वैसे ही उसकी तृष्णा भी बढ़ती चली जाती है , क्योंकि मानव तृष्णाओँ का कभी अंत नहीं होता है | इसीलिए उसकी यह अंतहीन खोज कभी समाप्त नहीं होती है | इस अंतहीन खोज मे ही संसार बसता है | संसार के इसी आकर्षण फँसकर उसीमे ही धीरे धीरे उसका जीवन समाप्त होता जाता है |

मृगतृष्णा है यह संसार

जिस प्रकार से रेगिस्तान में प्यास से व्याकुल हिरण , भ्रांति के कारण रेत के टीलों को पानी का स्रोत समझकर इधर उधर भटकते हुए अपने प्राणों का अंत कर लेता है , ठीक उसी प्रकार विभिन्न प्रकार की तृष्णाओं में फंसा हुआ प्राणी भी इनकी पूर्ति में भटकते भटकते अपना जीवन समाप्त कर लेता है | मानव की इन लालची प्रवृतियां की पूर्ति का कोई अंत नहीं होता है | एक इच्छा की पूर्ति होने के बाद उसकी दूसरी इच्छा का प्रारंभ शुरू हो जाता है | जितनी त्वरा और तीव्रता से मानव की एक के बाद एक इच्छाओं की पूर्ति होती रहती है , उतना ही उसका उसके प्रति आकर्षण भी बढ़ता जाता है | मानव की यह ललक या चाहत कभी समाप्त नहीं होती


मुफ्त में कुछ नहीं मिलता

यह तो सभी जानते हैं कि संसार में किसी को कोई भी चीज मुफ्त नहीं मिलती है | जिसप्रकाऱ कुछ पाने के लिए , कुछ खोना भी पड़ता है | ठीक उसीप्रकार मानव को भी इसके लिए उसे छोटी या बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है | कभी कभी मानव को ऐसा लगता है कि , उसे कुछ चीजों की प्राप्ति तो हो गई है , लेकिन उसने उसकी कोई कीमत नहीं चुकाई है | परन्तु यह उसका एक प्रकार का भ्रम ही हो सकता है | ऐसा हो सकता है कि उसे प्रत्यक्ष में ऐसा लगे कि उसने अपनी किसी इच्छा की पूर्ती के लिए कोई कीमत न चुकाई हो | परंतु उसे उसकी अदायगी अपने पुण्यों के माध्यम से अवश्य करनी पड़ती है |

साधना का सिद्धान्त

इस विषय से संबंधित साधना का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि , व्यक्ति के पुण्य और तप की ऊर्जा उस दिशा में प्रवाहित ही होती है , जिस दिशा में उसके विचार और भाव प्रवाहित होते हैं | यही कारण है कि जब जब आदमी के मन में संसार के प्रति आकर्षण बढ़ता है , तब तब उसकी ऊर्जा भी उसी दिशा में नियोजित होने लगती है | अतः जब प्रत्येक मानव को इसकी कीमत उसे जब अपने पुण्यों से चुकाना पड़ता है , तब उसको होने वाला यह भ्रम टूट जाता है |

मूल्यों का भुगतान अवश्यम्भावी

इसीलिए जब कोई सोचता है कि उसने अपनी तृष्णा की पूर्ति का मूल्य अदा नहीं किया है , तब उसकेपुण्य उसका मूल्य झुकाते हैं | इसीलिए आदमी को चाहिए की वह इस तथ्य को समझे कि , इस संसार मे केवल सुख की प्रतीति होती है , परंतु यहां पर सुख है ही नहीं | गृहस्थ जीवन में संचित पुण्य , तृष्णाओं की कीमत अदा करते करते खत्म होते रहते हैं |

संसार के मायने

संसार का अर्थ ही है , सुख की खोज में भटकने वाला भ्रमित मन | इसीलिए जितनी जल्दी हो सके इस भ्रम से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए | इसका केवल एक ही रास्ता है कि , व्यक्ति को उसकी भूल का एहसास होना चाहिए | इसका अहसास हो जाने पर ही वह फिर से तपस्या के पथ का चयन कर , एक दिन संसार के आकर्षण से मुक्त हो सकता है | अर्थात संसार की मृगतृष्णा से मुक्ति पा सकता है |

इति श्री



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