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दुख की आवश्यकता
इस नश्वर संसार के जन्मदाता परमपिता ईश्वर ने अनेकों प्रकार के प्राणियों की रचना की है |इन सभी रचनाओं में मानव को सर्वश्रेष्ठ माना गया है |इस संसार का प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन खुशहाल और सुख में बिताना चाहता है जिसके लिए वह अनेकों प्रकार की प्रयत्न करता रहता है इसी सुख की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हुए उसका संपूर्ण जीवन बीत जाता है यहां यह तथ्य विचारणीय है कि क्या मनुष्य को अपने जीवन में सुख प्राप्त हो पाते हैं क्या मनुष्य अपने प्रयासों से ही सुखों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर पाता है यह एक विचारणीय प्रश्न है |

सुख और दुख एक सिक्के के दो पहलू

वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक मानव के जीवन में सुख और दुख दोनों निरंतर आते-जाते ही रहते हैं सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख की पुनरावृत्ति होती ही रहती है यह प्रकृति का एक सार्वभौमिक सिद्धांत है अगर किसी को जीवन में केवल सुख ही मिलते रहे तब हो सकता है कि प्रारंभ में उसे सुखों का आभास ज्यादा हो परंतु धीरे-धीरे मानव को यह सुख नीरस ही लगने लगेंगे जिसके कारण उसे सुखों से प्राप्त होने वाला आनंद धीरे-धीरे कम होता चला जाएगा और अंत में उसका जीवन उदासीन हो जाएगा समय के साथ-साथ मानव की यह सुखानुभूति भी शून्य होती चली जाएगी ऐसी स्थिति में दुख ही है जो किसी के जीवन में आकर उसके सुखों को पुनः स्थापित करते रहते हैं यदि किसी के जीवन में दुख न आए तब उसके जीवन में सुखों की अनुभूति नहीं हो सकेगी ठीक इसीप्रकार इसी प्रकार अगर जीवन में सुख न आए तो दुखों की अनुभूति नहीं हो सकती है अगर इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो सुख और दुख जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता है |

मानव जीवन में दुख

इस संसार का प्रत्येक प्राणी अपने जीवन को सुखों से भरा देखना चाहता है वह इस बात की कल्पना ही नहीं करना चाहता है कि उसके जीवन में दुख भी आए यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन दुखों से भरा हुआ दिखाई पड़ता है इन दुखों से निजात पाने और सुख को अपनाने के लिए मनुष्य अनेकों प्रकार के प्रयत्न करता रहता है इनसे निवृत्ति के लिए तथा जीवन में सुखों की प्राप्ति के लिए प्रत्येक मानव अनगिनत प्रयास करते भी देखे जाते हैं परंतु क्या ऐसा संभव हो पाता है निश्चित रूप से ऐसा नहीं हो पाता है परन्तु विडंबना यह है कि सुख केवल गिने चुने लोगों को ही मिल पाता है बाकी के शेष लोगों के साथ ऐसा नहीं हो पाता है उनका सारा जीवन अतृप्ति असफलता असंतोष और अभावों के बीच बीतता रहता है प्रायः देखने में आता है कि लोग सुख के लिए भटकते ही रहते हैं परंतु उन्हें अधिक मात्रा में दुख ही मिल पाते हैं हर एक सांसारिक प्राणी की यही पीड़ा है तथा यही वेदना भी है 



\\\\सुख की तलाश\\\\

इस संसार का वह प्रत्येक प्राणी जो अपने जीवन में केवल सुखों को तलाशता रहता है वह इस तथ्य को बिल्कुल ही भूल जाता है कि दुख कहीं बाहर से नहीं आता है बल्कि दुख का प्रादुर्भाव तो हमारे भीतर ही होता है हम चाहे कितना भी दुखों के कारण को किसी घटना या परिस्थिति में ढूंढना चाहे तो भी हमें किसी भी स्थिति और परिस्थिति में इसमें सफलता नहीं मिल पाती है क्योंकि दुखों की जड़ तो हमारे मन में ही होती है बाहर ढूंढने में इसके कारण तो अनेको मिल सकते हैं परंतु इनका समाधान नहीं मिल पाता है दुखों का समाधान परिस्थितियों को बदलने से नहीं बल्कि मन की स्थिति को बदलने से ही हो पाता है हमारे मन की स्थिति जब दूषित और प्रदूषित हो जाती है तब ही हमारे जीवन में दुख आने लगते हैं इनसे किसी भी परिस्थिति में बचना संभव नहीं है तथा इसका अन्य कोई उपाय भी नहीं है |

🔻🔺दुखों से मुक्ति पाने का उपाय

अगर मानव को अपने जीवन में दुखों से मुक्ति पाना है तो उसे अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना ही होगा उसे इस दृष्टिकोण को गहरे से अपने मन में बिठाना ही होगा कि उसके जीवन में आए दुखों के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है उसे जो कुछ भी बाहर घटित होता दिखाई देता है वह तो केवल अंदर की छाया है इसीलिए दुखों की जिम्मेदारी उसे स्वयं ही अपने सर पर लेनी होगी इससे बचना तो सम्भव ही नही है जीवन में दुख हो या सुख हर्ष हो या विषाद तथा सम्मान हो या अपमान इन सब को समान रुप से स्वीकारना ही होगा तथा अपनी परिस्थितियों की जिम्मेदारी उसे स्वयं पर ही लेनी होगी उसे इस बात को सदैव ध्यान में रखना होगा कि उसके दुख उसके द्वारा किए गए कर्मों के परिणाम हैं इस प्रकार की जिम्मेदारी ले लेने पर उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाएगा इसके साथ ही उसके अंदर दुखद परिस्थितियों से लोहा लेने की ताकत भी आ जाएगी ऐसा करके ही मानव अपने जीवन में दुखों को अपने से दूर रख सकता है ऐसा न कर पाने वाला प्रत्येक प्राणी दुखों के झमेले में फंसता ही चला जाएगा |

मनः स्थिति में बदलाव आवश्यक

इस तथ्य से कभी भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि जीवन में दुःख केवल उन्हीं के जीवन में घटित होता है जो अपनी जिम्मेदारी लेना जानते हैं अपनी त्रुटियों गलतियों और बुरे कार्यों की जिम्मेदारी लेकर ही हम अपने जीवन में दुखों को कम करके ही अपने जीवन को सुखपूर्वक बिता सकते हैं अपनी जिम्मेदारी को दूसरों पर डालकर हम कभी भी अपने आप में परिवर्तन नहीं ला सकते हैं और न ही बदलने की शुरुआत कर सकते हैं ऐसा केवल वही लोग कर पाते हैं जो अपने दुखों का कारण बाहर नहीं बल्कि अपने अंदर ही खोज लेते हैं ऐसा कर पाने के बाद ही उन्हें उसमें सुधार करने का पर्याप्त अवसर मिल पाता है अतः परिस्थितियों को नहीं मनःस्थिति को बदलने का प्रयास करना चाहिए जैसे ही मानव अपना इसके अनुरूप अपना दृष्टिकोण बदलता है तथा उसी के अनुसार प्रयास करता है तब ही उसके जीवन में समाधान स्वयं प्रस्तुत हो जाता है इसके पश्चात उसे अपने जीवन में सुख और दुख दोनों एक सिक्के के पहलू दिखाई पड़ने लगते हैं उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है कि प्रत्येक मानव के जीवन में जितना आवश्यक सुख है उससे भी आवश्यक दुख है ऐसा करने के बाद ही उसे अपने जीवन में स्थाई रूप से संतोष मिल पाता है |

इति श्री

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