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धर्म ; कामनाओं का संसार [24 ]

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कामनाओं का संसार   
    
 इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी के मन में भिन्न भिन्न प्रकार की कामनाओं का भंडार समाहित रहता है कामना को एक प्रकार की आग माना जा सकता है यह एक ऐसी धधकती आग है जो कभी बुझती नहीं है एक कामना की पूर्ति होने पर दूसरी कामना जन्म देने लगती है यह नए नए रूपों में आदमी के मन और मस्तिष्क में सदा प्रज्वलित रहती है कामना की आग में मिट जाना ही विनाश है | इसके विपरीत जब कोई पुरुष कामनाओं पर नियंत्रण कर लेता है , सिर्फ उसी समय ही उसे विवेकशील प्राणी कहा जा सकता है इसके अलावा कामना की आग बुझा देने का अपार दुस्साहस करना ही विजय है |


  कामनाएं पीछा नहीं छोड़ती 

    मानव मन में कामना का संसार निवास करता है कामना का यह संसार कभी छिपता नहीं है अर्थात अनंत काल तक कामनाएं मन मस्तिष्क में उमड़ती घुमड़ती रहती हैं यदि कोई पुरुष अपने प्रयास से इन्हे अपने बस में कर लेता है तब वह एक प्रकार से मन की इच्छाओं को नियंत्रित कर पाता है ऐसी स्थिति में उसकी कामनाओं का संसार विलुप्त होता जाता है प्राणी का मन की इच्छाओं को नियंत्रित कर लेना ही उसके लिए परम तृप्ति का मार्ग आसान कर देती है इस मार्ग पर चलते हुए उसे परम तृप्ति जी अवश्य मिलती है |
    
 कामना पूर्ति का कोई समाधान नहीं 

     जब किसी के मन मस्तिष्क में कामनाओं का ज्वार उठता है , तब से ही वह उसकी पूर्ति में लग जाता है इसका कारण है कि इस की अतृप्त में अत्यधिक जलन होती है जिसे किसी भी रुप में सही ठहराया जाना उचित नहीं प्रतीत होता है इसका कोई भी रूप मानव के लिए ठीक नहीं है इसीलिए कहा गया है कि यह एक ऐसा न मरने वाला पेड़ है जो कभी भी और कहीं भी अपनी जड़ों का विस्तार कर लेता है | अपनी जड़ें जमाने के बाद ही वह पेड़ अंकुरित होकर अपने विषाक्त प्रभाव को चतुर्दिक फैला देता है जब किसी की कामनाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है तब उस व्यक्ति में क्रोध की उत्पत्ति होती है यह क्रोध ही उस मनुष्य के विवेक को समाप्त कर देता है अर्थात उसमें सही-गलत की सच्ची समझ समाप्त हो जाती है |
  
  जीवन यापन में कठिनता 

    जब किसी की कामनाओं का प्रसार होता है तब उसे सही और गलत की समझ नहीं रह जाती है जिसके कारण उसका जीवन यापन कठिन से कठिनतर होता जाता है इसका कारण है कि स व्यक्ति के अंदर सही और गलत के बीच एक भ्रम की दीवार खड़ी हो जाती है | जिसके कारण वह कभी-कभी सही को भी गलत मान लेता है जो उसकी अविवेकशील की स्थिति का निर्माण करती है , जो उस व्यक्ति का उसका एक अनुचित कृत्य होता है ऐसी विचारधारा को सही मानकर जीवन मे इसका प्रश्रय देना अंत में उसके लिए विनाशकारी सिद्ध हो जाता है इसका एक दूसरा पहलू भी है कामनाओं के वशीभूत प्राणी ने अगर अमृत को विष मान लिया  ,तथा उसका पान कर लिया तब ऐसा करना उसकी नासमझी ही होता है इसी प्रकार विष को अमृत मान कर ग्रहण कर लेने से भी उसका मृत्यु के मुख में चले जाना निश्चित हो जाता है जिसे रोकने का कोई उपाय नहीं होता है | यह सब कामनाओं का ही सुपरिणाम न होकर दुष्परिणाम ही साबित होता  है |
   
  कामनाओं की बाधा है क्रोध 

     कामनाओं की पूर्ति न होने पर प्राणी के मन में क्रोध पैदा हो जाता है परिणामस्वरुप वह इस क्रोध की दावानल मे जलने लगता , जिससे उसका सब कुछ भस्म हो जाता है क्योंकि यह तो सर्वविदित है कि क्रोधित होने पर कोई भी कुछ अच्छा नहीं कर सकता है इसके कारण उस मानव के सभी बने-बनाए कार्य भी क्रोध बिगाड़ देता है | गुस्सा एक ऐसी आग है इससे विनाश और संघर्ष के अनेकों अत्यंत भयानक रूप सामने आ जाते हैं कामनाओं की अतृप्ति से उत्पन्न क्रोधाग्नि उसको स्वयं ही जलाकर नष्ट कर देती है जिसके कारण उसके संबंधों की सीमाएं टूट जाती है ऐसा क्रोध का एक ऐसा विकट रूप है जो उसका सब कुछ नष्ट कर देने को आतुर रहता है इसीलिए प्रत्येक पुरुष को चाहिए कि वह कामनाओं से सदैव दूरी बनाए रखे | इसका केवल एक ही उपाय है कि कामनाओं को नियंत्रित कर लिया जाए ताकि विवेक उत्पन्न हो या फिर इस क्रोधाग्नि को बुझा देने का अपार दुस्साहस किया जाए ताकि उसे कामनाओं पर विजय प्राप्त हो सके |
  
   अहंकार की उत्पत्ति 

   उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कामनाओं को किसी भी रुप में उचित नहीं ठहराया जा सकता इसलिए इसके हर स्वरूप को प्राणी को प्राणी को विजित  करना ही चाहिए यदि किसी प्रकार से कामना की पूर्ति हो जाती है तब उस मानव में अहंकार पैदा हो जाता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उसे लगता है कि उसके अपने अंदर योग्यता है बुद्धिमत्ता है और कुशलता है इस प्रकार से उसके मन में उस कामनापूर्ति की चाहत से अहंकार की उत्पत्ति होती है और कामना की पूर्ति न होने पर उसके समक्ष नई समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं |
   मानव जीवन में कामनाएं मृगतृष्णा के समान होती हैं | इनकी पूर्ति न होने से दिल को न तो शांति मिलती है और न ही संतोष की प्राप्ति ही होती है मृगतृष्णा का अर्थ ही है कि हम जैसे हैं हमें तृप्त नहीं है ऐसी अवस्था में उसके प्रयासों द्वारा उसे जो कुछ भी प्राप्त होता है उससे उसकी संतुष्टि नहीं होती है अतः प्रत्येक पुरुष को चाहिए अपनी कामनाओं का त्याग करे , और अपने जीवन को अनमोल खुशियों से भरने का प्रयास करें क्योंकि इसके परित्याग से ही उसमें विवेकशीलता उत्पन्न हो सकती है जो उसके जीवन को उन्नति प्रदान कर सकती है | कामनाओं की मृगतृष्णा का त्याग करके ही जीवन में सफलता और आनंद की प्राप्ति की जा सकती है | इसीलिए इनका परित्याग ही सर्वोपरि है |

 इति श्री 

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