सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

धर्म ; निष्काम कर्म ही कर्मयोग है [ 18 ]

Web - 1najar.in
निष्काम कर्म ही कर्मयोग है
इस संसार में व्यक्ति का जन्म आज से करोड़ों वर्ष पहले हो चुका है | आदि काल में मानव केवल अपनी जरूरतों से संतुष्ट हो जाता था | उसे अपनी जरूरतों के लिए अत्यंत परिश्रम करना पड़ता था | समय के साथ धीरे-धीरे जीवन आसान होता गया , और आज कल मनुष्य की लगभग सभी जरूरतें आसानी से पूरी हो जाती है | जरूरतें पूरी हो जाने के बाद मानव ने संपन्नता , मान , सम्मान , यश और न जाने क्या क्या प्राप्त कर लिया है | प्राणी इसी मे अपनी खुशियों को ढूंढता रहता है | सभी की खुशियों की एक लंबी सूची हो सकती है | जिसमें उसकी कुछ खुशियां पूरी हो जाती हैं और कुछ अधूरी रह जाती हैं |
खुशियों की काल्पनिक खोज
प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने ढंग से खुशियों की खोज में लगा हुआ है | परंतु यह खुशियां किस-किस के ऊपर टिकी हुई है , यह जानना भी अत्यावश्यक है | हमारी खुशियां कर्मफल के ऊपर तथा परिणाम के ऊपर टिकी हुई है | यदि किसी कार्य के करने मे से परिणाम को हटा लिया जाए , उस समय केवल व्यक्ति अपने कर्म तक सीमित हो जाएगा | जब व्यक्ति फल की इच्छा नहीं करता है , तब ही उसे संतोष मिल पाता है | जो परिणाम से कई गुना अच्छी है | लेकिन आजकल व्यक्ति किसी कर्म का परिणाम पाकर ही प्रसन्न होता है | वास्तव में खुशी और संतोष में बहुत बड़ा अंतर है | जिस समय व्यक्ति को संतोष की प्राप्ति हो जाती है | उससमय उसे दुनिया की सभी खुशियां प्राप्त हो जाती हैं | एक प्रकार से अगर देखा जाए तो व्यक्ति का कर्म ही प्रधान है | उससे खुशियां प्राप्त करना या संतोष प्राप्त करना उसी पर निर्भर करता है |
कर्म ही प्रधान है
इस संसार में हर व्यक्ति का कर्म ही प्रधान होता है | अच्छे कर्मों के द्वारा ही किसी को संतोष की प्राप्ति होती है | संतोष पाने के बाद उस समय की स्थिति उसके लिए आनंद की स्थिति होती है | इसके बाद उसे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं होती है | उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यक्ति को कर्म ही करना चाहिए , उसके परिणाम की आशा नहीं करनी चाहिए | उसके कर्मों का परिणाम तो उसे उसके आराध्य देव से मिलेगा ही | इसमें कोई संदेह नहीं है | गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण भगवान ने कहा था कि व्यक्ति को कर्म करना चाहिए , उसके फल की आशा नहीं करनी चाहिए | क्योंकि फल को तो ईश्वर ही देने वाला होता है | इस संबंध में यहाँ एक उदाहरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है |
एक उदाहरण
मान लीजिए कि कोई बच्चा पढ़ाई कर रहा है | वह पढ़ाई में अपना मन भी लगाता है | और ध्यान लगाकर अपना पठन पाठन कार्य भी करता है | यह उसका कर्म है | परंतु यदि वह आशा करें की अच्छी पढ़ाई के बल पर उसे अच्छी नौकरी मिल जाएगी , तब इसमें संदेह है | भविष्य में उसकी पढ़ाई से नौकरी मिलेगी या नहीं निश्चित नहीं है | तात्पर्य यह है कि पाटन पाटन से यदि वह परिणाम स्वरुप नौकरी प्राप्त करने की आशा करता है | तो उसके पूरा होने में संदेह है | परंतु पठन पाठन से उसे जो ज्ञान प्राप्त हुआ है , वह निश्चित रूप से उसी का होगा | यह उसका कर्म फल होगा | पढ़ाई के बाद उसका मन नौकरी पाने की खुशी और ना खुशी के बीच झूलता रहेगा | इससे उसे कभी शांति नहीं मिल सकेगी | इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने कर्म पर तथा अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करें | क्योंकि उसे जो मिलने वाला है वह इसी से प्राप्त हो सकता है |
कर्म की धारा
प्राणी के कर्म की अनेकों धाराएं हैं | उन्हीं में से कर्म की एक धारा का नाम है धार्मिकता | धार्मिकता की प्राप्ति चोटी रखने , तिलक लगाने तथा प्राणायाम करने से नहीं प्राप्त होती है | यह तो एक प्रकार का दिखावा या आडंबर होता है | इसके द्वारा अबोध जनता को ठगा तो जा सकता है , लेकिन उसका कल्याण नहीं किया जा सकता | इस प्रकार का लोकव्यवहार करने वाला मनुष्य जनसामान्य द्वारा ढोंगी कहा जाता है , और लोग उसे कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते हैं | लोगों द्वारा उसे पीठ पीछे अपमान ही मिलता है | अतः धर्म की इस स्थिति को त्याज्य की मानना चाहिए |
धर्म का अर्थ है कर्म
प्राणी को इस सत्य को हरदम स्वीकार करना चाहिए , कि धर्म क्षेत्र ही कर्म क्षेत्र है | अर्थात धर्म का मतलब केवल कर्म से है | आदमी के कर्म ही श्रेष्ठ होते हैं | तब ही लोग हृदय से उसका सम्मान करते हैं | इस प्रकार सतकर्म से ही आदमी को आनंद मिलने लगता है | यहाँ इस तथ्य को समझना समीचीन होगा | यदि कोई अपना कर्म पूरी ईमानदारी के साथ करता है | इसलिए उसे अपने कर्म को अपना फर्ज समझकर पूरा करना चाहिए | अपने कर्मों द्वारा फर्ज की पूर्ति करने वाले व्यक्ति को ही कर्मयोगी कहा जा सकता है | इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने सत्कर्मों को करते रहते जाना चाहिए | इसी प्रकार के कर्म करते हुए उसे कर्मयोगी की उपाधि प्राप्त हो सकती है | हर व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि शरीर के साथ-साथ अन्य लोगों के साथ भी हमारे कई प्रकार के फर्ज होते हैं | एक कर्मयोगी को उसे पूरा ही करना होता है |
शरीर ही जीवात्मा का मंदिर है
संसार में जितने भी कर्मयोगी हुए है | उन्होंने अपने ज्ञान द्वारा यह जान लिया है कि शरीर के साथ भी हमारा फर्ज यह है , कि शरीर ही हमारा घर है | हमारा घर अर्थात जीवात्मा का मंदिर है , जहां जीवात्मा निवास करती है | इसलिए शरीर को संयम के द्वारा तथा सुरक्षा के द्वारा कायदे से रखना होगा | जो भी प्राणी शरीर के इस रहस्य को जान जाता है , और उसके लिए प्रयासरत होकर सफलता प्राप्त करता है उसे ही धर्मात्मा कहा जा सकता है | यह धर्मात्मा ही कर्मयोगी कहलाता है | उसे अपनी शक्तियों का उपयोग करने के लिए नहीं , बल्कि उसका उपयोग करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए | तभी उसे जीवन का आनंद प्राप्त हो सकता है , और तभी वह अपने धर्म कर्म से धर्मात्मा अर्थात कर्मयोगी बन सकता है | इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति को कर्म के स्वरूप , कर्म के सिद्धांत और कर्म के आदर्शों की जानकारी होना ही चाहिए | क]उसी के अनुरूप कार्य करके ही उसे संतोष प्राप्त हो सकता है | इसलिए उसे जीवन में कर्म फल की आशा न करके केवल कर्म पर ध्यान लगाना चाहिए | तब ही उसे कर्मयोगी की सर्वोच्च स्थित की प्राप्ति हो सकेगी |
इति श्री
Web - 1najar.in

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

माता की प्रसन्नता से मिलती है मुक्ति

web - GSirg.com माता की प्रसन्नता से मिलती है मुक्ति मां भगवती की लीला कथा के अनुकरण से शिवसाधक को कई प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं , जैसे शक्ति , भक्ति और मुक्ति आदि | माता की लीला कथा का पाठ करने से ही शक्ति के नए नए आयाम खुलते हैं | यह एक अनुभव की बात है | आदिकाल से ही माता के भक्तजन इस अनुभव को प्राप्त करते रहे हैं , और आगे भी प्राप्त करते रहेंगे | भक्तों का ऐसा मानना है , कि शक्ति प्राप्त का इससे सहज उपाय अन्य कोई नहीं है | इसके लिए दुर्गा सप्तशती की पावन कथा का अनुसरण करना होता है , जो लोग धर्म के मर्मज्ञ हैं तथा जिनके पास दृष्टि है केवल वही लोग इस सत्य को सहज रूप में देख सकते हैं | ----------------------------------------------------------------------- ------------------------------------------------------------------------ दुर्गा सप्तशती का पाठ माता की भक्ति करने वालों के जानकारों का विचार है , कि माता की शक्ति प्राप्त का साधन , पवित्र भाव से दुर्गा सप्तशती के पावन पाठ करने पर ही प्राप्त हो सकता है | इस पवित्र और शक्ति दाता पावन कथा

दुख की आवश्यकता दुख की आवश्यकता दुख की आवश्यकता

 दुख क्या है ? इस नश्वर संसार के जन्मदाता परमपिता ईश्वर ने अनेकों प्रकार के प्राणियों की रचना की है | इन सभी रचनाओं में मानव को सर्वश्रेष्ठ माना गया है | इस संसार का प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन खुशहाल और सुख में बिताना चाहता है , जिसके लिए वह अनेकों प्रकार की प्रयत्न करता रहता है | इसी सुख की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हुए उसका संपूर्ण जीवन बीत जाता है | यहां यह तथ्य विचारणीय है कि क्या मनुष्य को अपने जीवन में सुख प्राप्त हो पाते हैं | क्या मनुष्य अपने प्रयासों से ही सुखों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर पाता है | यह एक विचारणीय प्रश्न है | सुख और दुख एक सिक्के के दो पहलू वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक मानव के जीवन में सुख और दुख दोनों निरंतर आते-जाते ही रहते हैं | सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख की पुनरावृत्ति होती ही रहती है | यह प्रकृति का एक सार्वभौमिक सिद्धांत है | अगर किसी को जीवन में केवल सुख ही मिलते रहे , तब हो सकता है कि प्रारंभ में उसे सुखों का आभास ज्यादा हो | परंतु धीरे-धीरे मानव को यह सुख नीरस ही लगने लगेंगे | जिसके कारण उसे सुखों से प्राप्त होने वाला आ

[ 1 ] धर्म ; मानवप्रकृति के तीन गुण

code - 01 web - gsirg.com धर्म ; मानवप्रकृति के तीन गुण संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी के माता-पिता तो अवश्य होते हैं | परंतु धार्मिक विचारकों के अनुसार उनके माता-पिता , जगत जननी और परमपिता परमेश्वर ही होते हैं | इस संबंध में यह तो सभी जानते हैं कि ,जिस प्रकार इंसान का पुत्र इंसान ही बनता है , राक्षस नहीं | इसी प्रकार शेर का बच्चा शेर ही होता है , बकरी नहीं | क्योंकि उनमें उन्हीं का अंश समाया होता है | ठीक इसी प्रकार जब दुनिया के समस्त प्राणी परमपिता परमेश्वर की संतान हैं , तब तो इस संसार के प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का अंश विद्यमान होना चाहिए | आत्मा का अंशरूप होने के कारण , सभी में परमात्मा से एकाकार होने की क्षमता व संभावना होती है | क्योंकि मनुष्य की जीवात्मा, आत्मा की उत्तराधिकारी है , इसलिए उससे प्रेम रखने वाला दिव्यता के शिखर पर न पहुंचे , ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता है | यह जरूर है कि , संसार के मायाजाल में फँसे रहने के कारण मानव इस शाश्वत सत्य को न समझने की भूल कर जाता है , और स्वयं को मरणधर्मा शरीर मानने लगता है | जीव आत्मा अविनाशी है मानव शरीर में