सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

धर्म ; गुरु की कृपा से सब कुछ संभव [ 20 ]

Web - 1najar.in
गुरु की कृपा से सब कुछ सम्भव
इस संसार का प्रत्येक पुरुष चाहता है कि उसे देवताओं की कृपा प्राप्त हो | कृपा प्राप्त हो जाने के बाद वह अपने जीवन में सतकर्म करता है या दुष्कर्म यह एक अलग बात है |प्राणी इस संसार में ईश्वर की कृपा प्राप्ति के बाद भी अपने कार्यों को अपनी इच्छानुसार करने के लिए स्वतंत्र होता है | सो वह अच्छे या बुरे कोई भी कार्य कर सकता है | परन्तु यह भी सच है की उसको अपने कृत्यों का परिणाम भी उसी के अनुरूप ही मिलता है |
दुष्कर्म तथा उसका परिणाम
दुष्कर्म करके जनमानस को तकलीफ पहुंचाने के कार्यों को कभी भी , किसी काल में उचित नहीं ठहराया गया है | दैवीयकृपा प्राप्त करने के बाद यदि कोई दुष्कर्म करता है , तब उसे अपने जीवन में दुखों और कष्टों के अलावा कुछ नहीं मिलता है | यदि दुष्कर्मों का परिमाण बहुत ज्यादा हो जाता है , उस के अत्याचारों को जब जनमानस के लिए असहनीय हो जाते है | ऐसे में स्वयं भगवान अवतार लेकर उसके अत्याचारों का अंत करते हैं | अत्याचारों के अंत करने के साथ ही साथ वह उस दुष्कर्म करने वाले की जीवन लीला को भी समाप्त कर देते हैं , ताकि दूसरों को सबक मिले और सभी प्राणी खुशहाल हो सकें |
सतकर्मों का प्रतिफल
यदि मानव ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के पश्चात अपना जीवन परोपकार और सतकार्यों में लगा देता है , तब उसे ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के बाद वह प्राणी धर्म मार्ग पर चलते हुए सच्ची भावना के साथ दूसरों की सहायता करता है | इसमें ही उसे सुख संतोष और आनंद की प्राप्ति होती है | सतकार्यों को करने के लिए उसे दैवीय सहायता तथा प्रेरणा प्राप्त होती रहती है | जिससे उसके जीवन केकार्य आसान हो जाया करते हैं | यह तथ्य हर लोक के हर काल में सदा ही सत्य रहा है कि दूसरों के हित करने वाले का कभी भी अहित नहीं हुआ है |
गुरु होना आवश्यक
ईश्वर कृपा प्राप्त प्राणी अपने जीवन में सत्कर्म तथा परोपकार के कार्य करता तो है , पर इसके लिए उसे एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है | इस पथप्रदर्शक को ही धार्मिक जगत में गुरु नाम से जानते हैं | आदिकाल से आधुनिककाल तक प्रत्येक सत्पुरुष का एक गुरु अवश्य रहा है | जिस के निर्देशों और संकेतों का पालन करते हुए शिष्य अपने कार्यों को कार्यान्वित करता रहता है ताकि उसके सभी काम बिना किसी बाधा के सरलता और सुगमता से अनवरत होते रहें | गुरु भी अपने शिष्य की समस्याओं तथा योजनाओं आदि के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत कर उसका उचित समाधान देता रहता है | शिष्य अपने गुरु के समक्ष गंभीर प्रश्न करता है तथा मन की शंकाएं प्रस्तुत करता रहता है | शिष्य के प्रश्नों का गुरु गंभीरतापूर्वक मनन कर उनका यथोचित उत्तर देता है , जिसके कारण उसके मन की शंकाएं समाप्त हो जाती हैं | और वह आगे के कार्यों में संलग्न हो जाता है |
गुरु का आशीर्वाद मिलना आवश्यक
शिष्य अपने जीवन में ऐसे कार्य करता है , जिससे कोई भी उससे अप्रसन्नता न रहे | आने कामो में सफलता पाकर वह अपने गुरु का तन मन और वचन से अनुग्रहित होता है | गुरु भी उसके कार्यों से प्रसन्न होकर अपने शिष्य को सफल होने का आशीर्वाद देते हैं | गुरु का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के बाद उसके जीवन के कार्यों में बहुत सरलता आ जाती है | eजिसके फलस्वरूप वह अपना जीवन निर्वाह बड़ी सरलता से कर पाता है | ऐसा प्राणी अपने जीवन में न्यूनतम आवश्यकताओं में निर्वाह करने की कला विकसित कर लेता है , ताकि वह लोगों को बहुत कुछ प्रदान कर सके | प्रत्येक गुरु अपने शिष्य का हित देखते हुए उसे जनोपयोगी शिक्षाएं देता रहता है | उदाहरणार्थ गुरु अपने शिष्यों को बताता है कि यह ही ऐसा संसार है कि यहां पर किसी को भी कुछ ऐसे ही नहीं मिल पाता है , यहां पर कुछ पाने के लिए अपना बहुत कुछ खोना भी पड़ता है | ईश्वर संसारिक प्राणियों के पाप और पुण्य को तौल कर एक प्रकार का हिसाब करता है , ईश्वर व्यक्ति के पाप पुण्य के अनुपात में उसे सुख और दुख प्रदान करता है | ईश्वर किसी को पुण्य से अधिक सुख नहीं देता , और न ही पापों से अधिक दुख देता है | गुरु के द्वारा उपहार में मिले इन आशीर्वचनों से शिक्षा लेकर अपने जीवन में उत्तम कार्य करता रहता है |
उपसंहार
उपरोक्त विवेचन से पता चलता है कि प्रत्येक शिष्य अपने गुरु की शिक्षाओं पर चलकर ईश्वर की कृपा और जीवन में सफलता प्राप्त करता पाता है | इस तरह से हम देखते हैं कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी पहले है | उसकी कृपा से ही शिष्य का जीवन सफल हो जाता है | गुरु के आदेशों निर्देशों और शिक्षाओं पर चलते हुए शिष्य , अपने जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लेता है | इसीलिए उसे गुरु की कृपा मिलने से ही संसार की सभी उपलब्धियां प्राप्त हो जाती हैं | इस प्रकार गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊंचा हो जाता है , और उसकी कृपा से ही प्राणी सब कुछ प्राप्त कर लेता है | अतः गुरु की कृपा से सब कुछ सम्भव है |
इति श्री
Web - 1najar.in

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

माता की प्रसन्नता से मिलती है मुक्ति

web - GSirg.com माता की प्रसन्नता से मिलती है मुक्ति मां भगवती की लीला कथा के अनुकरण से शिवसाधक को कई प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं , जैसे शक्ति , भक्ति और मुक्ति आदि | माता की लीला कथा का पाठ करने से ही शक्ति के नए नए आयाम खुलते हैं | यह एक अनुभव की बात है | आदिकाल से ही माता के भक्तजन इस अनुभव को प्राप्त करते रहे हैं , और आगे भी प्राप्त करते रहेंगे | भक्तों का ऐसा मानना है , कि शक्ति प्राप्त का इससे सहज उपाय अन्य कोई नहीं है | इसके लिए दुर्गा सप्तशती की पावन कथा का अनुसरण करना होता है , जो लोग धर्म के मर्मज्ञ हैं तथा जिनके पास दृष्टि है केवल वही लोग इस सत्य को सहज रूप में देख सकते हैं | ----------------------------------------------------------------------- ------------------------------------------------------------------------ दुर्गा सप्तशती का पाठ माता की भक्ति करने वालों के जानकारों का विचार है , कि माता की शक्ति प्राप्त का साधन , पवित्र भाव से दुर्गा सप्तशती के पावन पाठ करने पर ही प्राप्त हो सकता है | इस पवित्र और शक्ति दाता पावन कथा

दुख की आवश्यकता दुख की आवश्यकता दुख की आवश्यकता

 दुख क्या है ? इस नश्वर संसार के जन्मदाता परमपिता ईश्वर ने अनेकों प्रकार के प्राणियों की रचना की है | इन सभी रचनाओं में मानव को सर्वश्रेष्ठ माना गया है | इस संसार का प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन खुशहाल और सुख में बिताना चाहता है , जिसके लिए वह अनेकों प्रकार की प्रयत्न करता रहता है | इसी सुख की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हुए उसका संपूर्ण जीवन बीत जाता है | यहां यह तथ्य विचारणीय है कि क्या मनुष्य को अपने जीवन में सुख प्राप्त हो पाते हैं | क्या मनुष्य अपने प्रयासों से ही सुखों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर पाता है | यह एक विचारणीय प्रश्न है | सुख और दुख एक सिक्के के दो पहलू वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक मानव के जीवन में सुख और दुख दोनों निरंतर आते-जाते ही रहते हैं | सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख की पुनरावृत्ति होती ही रहती है | यह प्रकृति का एक सार्वभौमिक सिद्धांत है | अगर किसी को जीवन में केवल सुख ही मिलते रहे , तब हो सकता है कि प्रारंभ में उसे सुखों का आभास ज्यादा हो | परंतु धीरे-धीरे मानव को यह सुख नीरस ही लगने लगेंगे | जिसके कारण उसे सुखों से प्राप्त होने वाला आ

[ 1 ] धर्म ; मानवप्रकृति के तीन गुण

code - 01 web - gsirg.com धर्म ; मानवप्रकृति के तीन गुण संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी के माता-पिता तो अवश्य होते हैं | परंतु धार्मिक विचारकों के अनुसार उनके माता-पिता , जगत जननी और परमपिता परमेश्वर ही होते हैं | इस संबंध में यह तो सभी जानते हैं कि ,जिस प्रकार इंसान का पुत्र इंसान ही बनता है , राक्षस नहीं | इसी प्रकार शेर का बच्चा शेर ही होता है , बकरी नहीं | क्योंकि उनमें उन्हीं का अंश समाया होता है | ठीक इसी प्रकार जब दुनिया के समस्त प्राणी परमपिता परमेश्वर की संतान हैं , तब तो इस संसार के प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का अंश विद्यमान होना चाहिए | आत्मा का अंशरूप होने के कारण , सभी में परमात्मा से एकाकार होने की क्षमता व संभावना होती है | क्योंकि मनुष्य की जीवात्मा, आत्मा की उत्तराधिकारी है , इसलिए उससे प्रेम रखने वाला दिव्यता के शिखर पर न पहुंचे , ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता है | यह जरूर है कि , संसार के मायाजाल में फँसे रहने के कारण मानव इस शाश्वत सत्य को न समझने की भूल कर जाता है , और स्वयं को मरणधर्मा शरीर मानने लगता है | जीव आत्मा अविनाशी है मानव शरीर में