सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

माता की प्रसन्नता से मिलती है मुक्ति

web - GSirg.com
माता की प्रसन्नता से मिलती है मुक्ति
मां भगवती की लीला कथा के अनुकरण से शिवसाधक को कई प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं , जैसे शक्ति , भक्ति और मुक्ति आदि | माता की लीला कथा का पाठ करने से ही शक्ति के नए नए आयाम खुलते हैं | यह एक अनुभव की बात है | आदिकाल से ही माता के भक्तजन इस अनुभव को प्राप्त करते रहे हैं , और आगे भी प्राप्त करते रहेंगे | भक्तों का ऐसा मानना है , कि शक्ति प्राप्त का इससे सहज उपाय अन्य कोई नहीं है | इसके लिए दुर्गा सप्तशती की पावन कथा का अनुसरण करना होता है , जो लोग धर्म के मर्मज्ञ हैं तथा जिनके पास दृष्टि है केवल वही लोग इस सत्य को सहज रूप में देख सकते हैं |
-----------------------------------------------------------------------





------------------------------------------------------------------------
दुर्गा सप्तशती का पाठ
माता की भक्ति करने वालों के जानकारों का विचार है , कि माता की शक्ति प्राप्त का साधन , पवित्र भाव से दुर्गा सप्तशती के पावन पाठ करने पर ही प्राप्त हो सकता है | इस पवित्र और शक्ति दाता पावन कथा का प्रचार केवल धरती पर ही नहीं , अन्य लोको में भी है | इस पावन कथा का पाठ और अनुष्ठान लोक लोकांतर में भिन्न भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है | इसके पाठ से अवरोधों का नाश , विघ्न बाधाओं से छुटकारा और नवसृजन का प्रारंभ होता है | जो भी साधक इस पाठ को पवित्र और भावना भरे मन से करता है तथा माँ भगवती का चिंतन करता है , माता उन्हें निश्चित रूप से अपनी शक्ति का वरदान देती हैं | यह सत्य किसी से छिपा नहीं है | इसको कई बार देखा और परखा भी जा चुका है , कि माता, अपने क्रोध से महाकाल , शंकर भगवान को भी विस्मित कर देने वाली आदिशक्ति माँ , केवल मां पुकारने से ही वरदायिनी और शीघ्र प्रसन्न होने वाली मां प्रसन्न हो जाती हैं |
मुक्ति दायिनी है मां
जिन असाध्य कार्यों को करने में स्वय स्वयं शंकर भगवान को सफलता नहीं मिल पाती है , उस कार्य को मां सामान्य जन की पुकार पर पूरा कर देती है | वास्तव में भक्ति की महिमा ही विचित्र है कि ममतामयी हैं | मां के इस ममतामयी रूप के बारे में ऐसी धारणा है | माता की शक्ति का अनुभव तथा लाभ तो सभी को मिल सकता है परंतु भक्ति मिलना आसान नहीं है | क्योंकि माता की भक्ति केवल उन्हीं को मिलती है जिनका अंतःकरण शुद्ध तथा चिंतन परिष्कृत होता है | भक्ति भाव से भरे साधक मां की सबसे प्यारी संतान होते हैं , इसीलिए मां स्वयं अपने तथा पवित्र और अंतःकरण के भाव से भरे ह्रदय वाले साधकों के बीच , कोई भेदभाव नहीं करती हैं | माता की भक्ति करने वाला साधक चाहे जिस लोक का निवासी हो , चाहे जिस जाति का हो अथवा किसी का पुत्र अथवा पुत्री हो माँ उससे कोई भेद नहीं करती हैं | वह तो केवल भक्तों की आर्त पुकार पर, उसे अपनी भक्ति का वरदान दे देती हैं |
विधि विधान का बंधन नहीं
करुणामयी माता अपनी प्रसन्नता से सभी को मुक्ति का वरदान देती हैं | यह वरदान मिल जाने पर भक्त के सभी जटिल कर्मबंधन तथा कठिन कष्ट और असाध्य रोग आदि समाप्त हो जाते हैं | प्रत्येक देवी देवता की अनेकों साधनाएं हैं , अनगिनत साधन है और सभी का एक निश्चित विधि विधान का प्रारूप है | लेकिन आदिशक्ति माता की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के विशेष विधि विधान साधना या साधन की आवश्यकता नहीं है | माता तो विधि-विधानों और विज्ञान से ऊपर उठकर अपनी कृपा और प्रसन्नता भक्तों को उपहारस्वरूप में स्वयम प्रदान करती हैं | अगर किसी प्राणी ने अनेक जन्म तक मां की की साधना की हो तो वह प्राणी माँ की कृपा से परम गति को प्राप्त होता है | उसे अपने आप ही मुक्ति मिल जाती है | इसके लिए उसको अनेक जन्मों की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है |
स्मरण और अनुभूति
जैसा की प्रारंभ हमें बताया जा चुका है कि आदिशक्ति माता को प्रसन्न करने के लिए किसी विशेष विधि विधान या विज्ञान की आवश्यकता नहीं है | तब प्रश्न यह उठता है कि माता की प्रसन्नता कैसे प्राप्त की जाए | इसके लिए भक्त या साधक को बस माता के साथ अपने नैसर्गिक सहज संबंधों के स्मरण की अनुभूति की आवश्यकता होती है | क्योंकि माता तो संपूर्ण संसार की माता है , और विश्व के सभी प्राणी उनकी प्रिय संतान हैं , इसलिए मां को प्रसन्न करने के लिए केवल उनका शुद्ध अंतकरण से स्मरण की अनुभूत करना ही पर्याप्त है | क्योंकि वह जगत माता है और माता कभी भी अपनी संतान का अहित नहीं करती है , सदा उसका कल्याण करती है | इसीलिए वह प्रसन्न होकर अपनी संतानों को मुक्ति का प्रसाद प्रदान करती हैं |
त्रिकाल त्रिबारं सत्य
आदिशक्ति माता स्वयं सृष्टि भी हैं और सृष्टा भी है | अखिल विश्व में जितनी भी रचनाएं , रचनाकार , सृजन और सृजेता हैं सभी कुछ माताजी ही हैं | वह प्रत्येक ब्रम्हाण्ड के सभी रहस्य को जानती हैं , क्योंकि विश्व के सारे रिश्ते उन्हीं से जन्मे हैं | जो भी है और जहां भी है उसको वह उसी तरह स्वीकार कर लेती हैं | इसीलिए उनको प्र्शन्न करने का किसी तरह का विधि विधान या विज्ञान नहीं है , तथा उनके जो भी प्रभाव और परिणाम है इन सब की जन्मदात्री माता जी ही हैं | इसीलिए इस तथ्य से परिचित भक्त या साधक किसी भी विधि विधान में नहीं पड़ते हैं | वह तो केवल एकाक्षरी मंत्र ''मां '' को शुद्ध अंतकरण से स्मरण करने लगते हैं , और उनकी शरण में चले जाते हैं | यह तो सत्य ही है कि शरणागत में आए हुए पुत्र को मां उन्हें अपना प्रसाद प्रदान करती हैं , तथा दुनिया की भव तथा बाधाओं से मुक्त कर , मुक्ति का वरदान प्रदान कर देती हैं |
आदिशक्ति माता मैं ही साधना में ही विश्व के गहन रहस्य समाए हैं | यह परम् वतस्ला माता ही पराविद्या , संसार बंधन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी है | जनसामान्य केवल मां के एकाक्षरी मंत्र '' माँ '' का पवित्र हृदय श्रद्धा से स्मरण कर उनकी प्रसन्नता का प्रसाद प्राप्त कर , इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है |
इति श्री

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दुख की आवश्यकता दुख की आवश्यकता दुख की आवश्यकता

 दुख क्या है ? इस नश्वर संसार के जन्मदाता परमपिता ईश्वर ने अनेकों प्रकार के प्राणियों की रचना की है | इन सभी रचनाओं में मानव को सर्वश्रेष्ठ माना गया है | इस संसार का प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन खुशहाल और सुख में बिताना चाहता है , जिसके लिए वह अनेकों प्रकार की प्रयत्न करता रहता है | इसी सुख की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हुए उसका संपूर्ण जीवन बीत जाता है | यहां यह तथ्य विचारणीय है कि क्या मनुष्य को अपने जीवन में सुख प्राप्त हो पाते हैं | क्या मनुष्य अपने प्रयासों से ही सुखों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर पाता है | यह एक विचारणीय प्रश्न है | सुख और दुख एक सिक्के के दो पहलू वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक मानव के जीवन में सुख और दुख दोनों निरंतर आते-जाते ही रहते हैं | सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख की पुनरावृत्ति होती ही रहती है | यह प्रकृति का एक सार्वभौमिक सिद्धांत है | अगर किसी को जीवन में केवल सुख ही मिलते रहे , तब हो सकता है कि प्रारंभ में उसे सुखों का आभास ज्यादा हो | परंतु धीरे-धीरे मानव को यह सुख नीरस ही लगने लगेंगे | जिसके कारण उसे सुखों से प्राप्त होने वाला आ

[ 1 ] धर्म ; मानवप्रकृति के तीन गुण

code - 01 web - gsirg.com धर्म ; मानवप्रकृति के तीन गुण संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी के माता-पिता तो अवश्य होते हैं | परंतु धार्मिक विचारकों के अनुसार उनके माता-पिता , जगत जननी और परमपिता परमेश्वर ही होते हैं | इस संबंध में यह तो सभी जानते हैं कि ,जिस प्रकार इंसान का पुत्र इंसान ही बनता है , राक्षस नहीं | इसी प्रकार शेर का बच्चा शेर ही होता है , बकरी नहीं | क्योंकि उनमें उन्हीं का अंश समाया होता है | ठीक इसी प्रकार जब दुनिया के समस्त प्राणी परमपिता परमेश्वर की संतान हैं , तब तो इस संसार के प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का अंश विद्यमान होना चाहिए | आत्मा का अंशरूप होने के कारण , सभी में परमात्मा से एकाकार होने की क्षमता व संभावना होती है | क्योंकि मनुष्य की जीवात्मा, आत्मा की उत्तराधिकारी है , इसलिए उससे प्रेम रखने वाला दिव्यता के शिखर पर न पहुंचे , ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता है | यह जरूर है कि , संसार के मायाजाल में फँसे रहने के कारण मानव इस शाश्वत सत्य को न समझने की भूल कर जाता है , और स्वयं को मरणधर्मा शरीर मानने लगता है | जीव आत्मा अविनाशी है मानव शरीर में